एशिया के विशाल गांव में स्थित गहमर, जो कामाख्या धाम कहलाता है, पूर्वांचल के लोगों के आस्था एवं विश्वास का महत्वपूर्ण केंद्र है। इस धाम में विशेष महत्व रखने वाले शक्ति पीठों के रूप में, यह धाम अपने आप में विभिन्न पौराणिक इतिहास को समेटे हुए है।
नवरात्र पर श्रद्धालुओं की भीड़ का सैलाब उमड़ रहा है। नवरात्र की अष्टमी को महानिशा की आरती रात 12 बजे हुई। इसमें उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार से भी लोग बड़ी संख्या में शामिल हुए। एक प्रसिद्ध मान्यता है कि पुत्र प्राप्ति के लिए यहां जोड़ा नारियल चढ़ाने से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
सुना जाता है कि इस स्थान पर जमदग्नि, विश्वामित्र जैसे ऋषि-मुनियों का सत्संग समागम होता था। यहां विश्वामित्र ने एक महायज्ञ भी आयोजित किया था। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने इसी स्थान से आगे बढ़कर बक्सर में ताड़का नामक राक्षसी का वध किया था।
मंदिर के स्थापना से जुड़ी एक कहानी है कि पूर्व काल में फतेहपुर सिकरी में सिकरवार राजकुल पितामह खाबड़ जी महाराज ने कामगिरी पर्वत पर जाकर मां कामाख्या देवी की घोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न मां कामाख्या ने कालांतर तक सिकरवार वंश की रक्षा करने का वरदान दिया था। वर्ष 1840 तक मंदिर में खंडित मूर्तियों की ही पूजा होती रही।
1841 में गहमर के स्वर्णकार तेजमन ने मानोकामना पूरी होने के बाद इस मंदिर के पुनर्निर्माण की शुरुआत की। वर्तमान समय में मां कामाख्या सहित अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां मंदिर परिसर में स्थापित हैं। शारदीय और वासंतिक नवरात्र में जिला सहित गैर जिलों के भक्तों की भीड़ उमड़ती है। ऐसा माना जाता है कि मां के दरबार से कोई भक्त खाली नहीं जाता। उसकी हर मनोकामना अवश्य पूरी होती है।