छात्रसंघ का नाम आते ही सामान्यतया नकारात्मक छवि जेहन में उभरती है, लेकिन कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने महामना की कर्मभूमी को लोकतंत्र की इस पाठशाला कहने पर विवश किया। इसमें नाम लिया जा सकता है रेलमंत्री के बाद अब जम्मू कश्मीर में उप राज्यपाल की जिम्मेदारी निभा रहे मनोज सिन्हा का। बीएचयू में पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने राजनीति में आने का संकल्प लिया तो उसे पूरा तो किया ही एक बड़ी परिभाषा भी गढ़ दी। वह थी विकास पुरुष के साथ विश्वास पुरुष की। उनमें लाट साहब नहीं सेवक का भाव नजर आता है जो लोगों को जोड़ता है और मुरीद भी बनाता है।
मनोज सिन्हा के चचेरे भाई व अवकाश प्राप्त नृसिंह इंटर कालेज मोहनपुरवा के प्रधानाचार्य सुरेशचंद्र सिन्हा उन दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि शुरू से ही वह मेधावी और कुशल वक्ता थे। उनकी भाषण शैली, विषय पर पकड़ और मेलमिलाप के तौर तरीके के लोग मुरीद हुआ करते थे। बीएचयू से छात्र राजनीति की शुरुआत इन्हीं खूबियों की देन है। उनका जन्म 1 जुलाई 1959 को हुआ था। दरअसल, मनोज सिन्हा का सामाजिक सरोकार बहुत बड़ा रहा है। जानने वाले जानते हैं कि यह भेद कर पाना बहुत मुश्किल है कि वह अपनी पहचान वालों में किसे ज्यादा चाहते हैं। चूंकि सबको यह ही भान होता है कि वह उन्हेंं मन से मानते हैं। राजनीतिक जीवन में प्रवेश बहुत आसान नहीं था। बड़ा था तो उनका वह संकल्प जो काशी हिंदू विश्वविद्यालय में ही लिया गया था-लडूंगा तो पार्लियामेंट का ही चुनाव। सबसे बड़ा है उनका धैर्य। छात्रसंघ चुनाव हो या संसदीय मतदान- दोनों में ही जीत और हार का क्रम उनके जीवन में चलता रहा। पर कभी निराश नहीं हुए। हारे फिर जीते।
जीत से ज्यादा चर्चा हार की हुई :
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में गाजीपुर में जीतने वाले की उतनी चर्चा नहीं हुई जितना की मनोज सिन्हा के हार की हुई। अपने कुशल कार्यशैली की बदौलत वह प्रधानमंत्री के अति करीबियों में शामिल हैं और जम्मू कश्मीर जैसे प्रदेश का उपराज्यपाल बनकर उन्होंने न सिर्फ गाजीपुर बल्कि पूरे पूर्वांचल का भी कद काफी बढ़ाया है।
जिले का जो मिलता हैं, पूछते हैं हाल चाल :
मनोज सिन्हा का कद भले ही काफी बढ़ गया हो, लेकिन वह अपना अंदाज नहीं भूले। आज भी जिले का कोई उनका जान-पहचान का कहीं मिलता है तो उसे गाजीपुर के ही अंदाज में... 'का हो का हाल चाल बा बोलकर हाल जानते हैं।