काशी में गंगा अपने पांच दशक पुराने स्वरूप में लौटने वाली है। इससे एक बार फिर गंगा का पाट लगभग दो सौ मीटर चौड़ा हो जाएगा।
वर्ष 1986 में राजघाट से रामनगर के बीच कछुआ सेक्चुरी बनाए जाने के बाद से गंगा का पाट क्रमश: सिमटने लगा था और रेत के टीलों का विस्तार होने लगा था। दो सौ मीटर चौड़ा पाट सिमट कर मात्र सौ मीटर रह गया था। कहीं कहीं तो 80 मीटर हो गया था। इसके बाद काशी के गंगा विज्ञानियों की ओर से विभिन्न मंचों से कछुआ सेक्चुरी को स्थानांतरित करने की मांग की जा रही थी। नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथारिटी के गठन से लेकर उसके नमामि गंगे में परिवर्तित होने तक लगातार वैज्ञानिकों के प्रयास जारी रहे। लंबे समय बाद कछुआ सेक्चुरी को हटाने का केंद्र सरकार ने निर्णय किया।
कुछ माह पूर्व राजघाट से रामनगर के बीच रेत के टीलों को हटाने का काम वन विभाग और सिंचाई विभाग की ओर से संयुक्त रूप से आरंभ किया। काम का परिणाम अब दिखने लगा है। मौजूदा समय में रेत का बड़ा हिस्सा हटाया जा चुका है। रेत हटाने के लिए राजघाट से रामनगर के बीच रेत की मोटी मेड़ बनाने के बाद पूर्व दिशा से खोदाई का काम शुरू हुआ। काफी दूर तक रेत हट जाने से रेत के दो पाटों के बीच नहर जैसा नजारा दिखने लगा है। इस नहर के पूर्वी हिस्से की रेत हटाए जाने के बाद बीच की मेड़ को हटा दिया जाएगा जिसके बाद गंगा का पाट पुन: लगभग दो सौ मीटर चौड़ा हो जाएगा।
टल जाएगा पक्के घाटों के धंसने का खतरा
बीएचयू के पर्यावरण विज्ञानी प्रो. बीडी. त्रिपाठी ने बताया कि कछुआ सेक्चुरी के कारण काशी में रेत का विस्तार पूरब से पश्चिम की ओर तेजी से होने लगा था। ऐसे में काशी के पक्के घाटों के धंसने का खतरा उत्पन्न हो गया था। जल के दबाव के कारण पक्के घाट नीचे से पोले होने लगे थे। अब रेत को हटाए जाने से जल राशि का विस्तार पुन: पूर्व दिशा की ओर हो जाएगा। इससे न सिर्फ काशी में गंगा अपने पुराने स्वरूप में आ जाएगी बल्कि पक्के घाटों के धंसने का खतरा भी समाप्त हो जाएगा।
कछुआ छोड़ने को बना दी गई सेक्चुरी
गंगा किनारे होने वाले शवदाह के दौरान प्रतिवर्ष करीब तीन टन अधजला मांस चिता से निकाल कर गंगा में प्रवाहित किया जाता है। वैज्ञानिकों का सुझाव था कि यदि मांसाहारी कछुओं को गंगा में छोड़ दिया जाएगा तो वे इस मांस का भक्षण कर जाएंगे। कछुआ छोड़ने के बजाय पूरे इलाके को कछुआ सेक्चुरी में तब्दील कर दिया। कछुआ सेक्चुरी नदी के शांत क्षेत्र में बनाई जाती है। राजघाट से रामनगर के बीच का इलाका इस दृष्टि से बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं था। अत्यधिक हलचल वाला क्षेत्र होने के कारण यहां कछुओं की जनसंख्या का विस्तार तो हुआ नहीं उल्टा रेत के दैत्याकार टीले उभरने लगे।