मुंबई, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली आदि महानगरों से घर लौटे प्रवासी श्रमिकों में कोई गंगा की लहरों पर नाव तो कोई मचान पर क्वारंटाइन है। स्थापित गांव के आश्रय स्थलों से विस्थापित होने के बाद से लोगों ने ऐसा अनोखा रास्ता अपनाया। गांव-परिवार की सुरक्षा उनकी प्राथमिकता है। इसके लिए दिन-रात की दुश्वारियों को गले लगाया। मंशा है-अपनों के बीच शारीरिक दूरी रहे। सामाजिक दूरी न बने।
वाराणसी मुख्यालय से करीब 24 किमी दूर गाजीपुर से सटे जिले की सरहद पर गंगा किनारे बसा कैथी गांव है। पप्पू निषाद उर्फ भेड़ा (45) गुजरात से गांव आए हैं। वे गंगा की लहरों पर अपने पैतृक नाव में क्वारंटाइन हैं। पप्पू गांव के कल्लू उर्फ कुलदीप के साथ गुजरात के मेहसाणा में गन्ने की पेराई करते हैं। लॉकडाउन से रोजगार बंद हो गया। जमा नकदी से कुछ दिन कटे लेकिन जब दाने-दाने को मोहताज हुए तो 10 दिन पूर्व स्पेशल ट्रेन से कुछ साथियों के साथ गाजीपुर रेलवे स्टेशन पहुंच गए। गाजीपुर के जिला अस्पताल में स्वास्थ्य परीक्षण कराने के बाद पप्पू कैथी गांव पहुंचे। उनके पिता की 20 वर्ष व पत्नी की आठ वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी है। दो पुत्र व एक पुत्री हैं जो उनकी मां के साथ गांव में रहते हैं।
पैतृक नाव को किराये पर चलाकर परिवार का भरण-पोषण होता है। कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन से उनकी मां बच्चों को लेकर अपनी पुत्री के घर चंदौली चली गईं। पप्पू घर आया तो दरवाजे पर ताला बंद था। पप्पू ने गंगा में किनारे बंधे पैतृक नाव पर शरण ले ली। गांव के एक मित्र ने बर्तन व उपली दे दी तो रोज बाटी-चोखा खाने के बाद गंगा का पानी पीकर पप्पू क्वारंटाइन का दिन काटने लगे। पप्पू कहते हैं-यहां पर कोई सरकारी सहायता नहीं मिल रही है। गांव में करीब 35 लोग मुंबई, सूरत आदि स्थानों से आए हैं। उन्हें 14 दिन घर से बाहर क्वारंटाइन रहना चाहिए था लेकिन वे घर चले गए।