कोरोना की त्रासदी के बीच लाखों श्रमिक जैसे-तैसे गांवों की तरफ जा रहे हैं। मजबूरी का पहिया पहनकर कुछ पांव पैदल ही अपने गांव के लिए कूच कर चुके हैं। जो अभी तक नहीं पहुंचे हैं, वो पहुंचने की छटपटाहट में हैं। आपदा से उपजी इस स्थिति को ‘पलायन’ कहा जा रहा है, किंतु यह पलायन नहीं है। पलायन वह था जब आंखों में आशाओं की चमक लेकर ‘रोजी’ की खोज में ये अनाम लोग गांव से महानगरों की तरफ निकले थे। गत सात दशकों में हमसे बड़ी चूक यही हुई कि उस पलायन पर हमने कभी चिंता नहीं महसूस की।
हमने नहीं सोचा कि किसी श्रमिक को श्रम की तलाश में अपने गांव-घर से हजारों किमी दूर ही जाने की मजबूरी क्यों है? खैर, शहरों से गांव लौटने की लालसा में कांधे पर बैग बांध कर निकले लोगों की संख्या इतनी बड़ी हो चुकी है कि सरकारों के तमाम प्रयास और समाज के बहुस्तरीय सहयोग के बावजूद भी सभी को उनके घर पहुंचा पाना टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। लिहाजा इस स्थिति ने देश को वेदना और संवेदना के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। श्रमिकों की गांव वापसी को लेकर कुछ सवाल लोगों के जेहन में हैं। संवेदना के इस वातावरण में भय और चिंता यह है कि क्या अब कोरोना शहरों से आ रहे लोगों के माध्यम से गांवों तक फैलेगा?
चूंकि शुरुआती स्थिति में यह दिख भी रहा है कि श्रमिकों के गांव की तरफ जाने के बाद कई जिले ग्रीन जोन से येलो या रेड जोन बनने की स्थिति में आ गये हैं। हालांकि यह एक तकनीकी पक्ष है। इसका व्यावहारिक पक्ष अलग है। श्रमिक वापसी की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों के कुछ जिलों का ग्रीन जोन से येलो या रेड जोन हो जाना, इस बात का द्योतक नहीं है कि कोरोना का प्रसार गांवों में हो गया है। चूंकि इन क्षेत्रों में ज्यादातर संक्रमित मामले वहीं आये हैं, जो लोग महानगरों से लौटे हैं। प्रसार के लक्षण व्यापक रूप में नजर नहीं आये हैं।